नर्मदा के बहाने…. प्रभाष जोशी नर्मदा को बहुत प्यार करते थे। उनके पुरखों की नदी है नर्मदा। चंडीगढ़ में उनके पिता की बस दुर्घटना में मृत्यु हुई तो दशा करने के लिए हरिद्वार या प्रयाग नहीं गए। नर्मदा के किनारे गए।
.
नर्मदा के बहाने….
- प्रभाष जोशी नर्मदा को बहुत प्यार करते थे। उनके पुरखों की नदी है नर्मदा। चंडीगढ़ में उनके पिता की बस दुर्घटना में मृत्यु हुई तो दशा करने के लिए हरिद्वार या प्रयाग नहीं गए। नर्मदा के किनारे गए।
- उनका
- मानना था कि उनके पिता की नदी नर्मदा थी। प्रभाष जी लिखते हैं “मुझ मध्य भारतीय की इस निजता को हिमालय और गंगा क्षमा करें। क्षमा करें हरिद्वार और प्रयाग भी। लेकिन अपना कुम्भ तो उज्जैन का सिंहस्थ है।”
नर्मदा के प्रति उनकी निष्ठा में मैं गंडक के प्रति अपनी निष्ठा को देखता हूं। मेरी उतनी ही निष्ठा गंगा के प्रति भी है। स्कूल जाने का रास्ता गंगा के किनारे को छूता था। उस रास्ते पर मेरी साइकिल दिन में दो बार आना-जाना करती थी। आज भी पटना जाता हूं तो गंगा के किनारे जाता हूं। नदी के किनारे वाले बिना नदी के प्रवाहित नहीं होते हैं। अपनी जड़ों से दूर जाकर केवल मिठाई और त्योहार को ही मिस नहीं करते, अपनी नदी को भी मिस करते हैं। क्योंकि वो ‘हमारी’ ‘मेरी’ नदी होती है।प्रभाष जोशी लिखते हैं-
“मुझे विश्वास हुआ कि मेरे पिता मरे नहीं है। वे मुझमें जीवित हैं। मैं मरूंगा तो भी मरूंगा नहीं अपने बेटे में जीवित रहूंगा। मुझमें जीवित हैं मेरे पिता, दादा, परदादा और पुरखे और वे सब आगे के बेटों और बेटियों में जीवित रहेंगे। उस क्षण मैं व्यक्ति नहीं काल की आदि अनन्त क्षिप्रा पर तैरता एक अमृत तत्व था। वही तत्व जो इस आदि अनन्त नदी के उद्गम पर भी है और सामने वर्तमान में भी और भविष्य के विसर्जन में भी। इस प्रतीति से मृत्य अप्रासंगिक हो जाती है। मृत्यु को अप्रासंगिक करना ही जीवन है और उसके ध्येय भी। यह मैंने पढ़ा नहीं है। उस दिन रामघाट पर अपने पिंड पर गिरते क्षिप्रा के जल में महसूस किया था। “
नदियों पर पुल का बनना विकास की अपनी ज़रूरत है लेकिन कई बार ये पुल नदियों को पराजित करने के उपक्रम लगते हैं। लगता है कि इंजीनियर ने सीमेंट और छड़ की ताक़त से नदी को पराजित कर दिया है। उसके प्रवाह को बांध दिया है।मुझे नदियों का पराजित होना पसंद नहीं है। वे कालजयी हैं। जब भी किसी नदी पर बने पुल से गुज़रता हूँ, लगता है उनके साथ निर्मम व्यवहार हो रहा है।बिहार के कोइलवर पुल से जब पटना जाने वाली रेल धड़धड़ाती हुए गुज़रती है तो दिल कांप जाता है। ऐसा लगता है कि सोन के पराक्रम को हम रौंद रहे हैं। उससे नज़र चुरा कर भाग रहे हैं। दुनिया के सबसे लंबे पुलों में एक गांधी पुल से गुज़रते हुए गंगा की तरफ हाथ जुड़ जाया करते थे।
आस्था केवल कर्मकांड में नहीं होती है। कर्मकांड आस्था का एक रुप है लेकिन जब हाथ जुड़ते हैं तो उस गंगा को प्रणाम के लिए जो सदियों से इस ज़मीन पर बहती आई है। जिसने असंख्य क़िस्सों को जन्म दिया है। जिनके सहारे इंसानी समाज की स्मृतियों ने हज़ारों वर्षों की यात्रा की है। जिसमें हम सब प्रवाहित हैं। जिसमें हम सब प्रवाहित होंगे। पटना जब भी हवाई जहाज़ से जाता हूं, खिड़की सीट न मिलने का अफसोस गंगा को ऊपर से बहता न देख पाने के अफसोस में बदल जाता है। हम सभी के भीतर अपनी नदी अनेक भावों के प्रवाह पैदा करती है।जिस दिन आपके भीतर की नदी सूख गई, उस दिन आप शहर के नाले की तरह बहने लगेंगे। नदियों को सुखा देने वाले इंसान को पता नहीं कि उसने नदी नहीं बल्कि करोड़ वर्षों की स्मृतियों को सुखा दिया है।
दिल्ली से सत्तर किलोमीटर की दूरी पर गढ़ मेला लगता है। गंगा के किनारे लगने वाला यह मेला अद्भुत है। मैंने अपने जीवन में नदी को इतनी सुंदर अवस्था में कम देखा है। गहमर के पास मोड़ लेती गंगा बहुत सुंदर लगती है लेकिन उस दिन गढ़ की गंगा के ऊपर का आसमान नीला हो चला था। नीले रंग की आभा में नदी का जल शांति और साहचर्य का विराट रुप प्रदर्शित कर रहा था। बहुत से लोग एक क़तार में पैदल नदी को पार कर रहे थे। नाव और पुल के अलावा पैदल चल कर नदी को पार किया जा सकता है। आज भी ऐसी कई नदियां हैं जिन्हें चल कर पार किया जा सकता है। मैं स्तब्ध होकर देख रहा था, लोग पैदल चलते हुए नदी पार कर रहे थे, मैंने देखा था उस दिन कृष्णमोहन झा की कविता नदी-घाटी-सभ्यता को पैदल नदी पार करते हुए। कवि कृष्णमोहन झा लिखते हैं
जब भी नदी में उतरता हूं
इस दुनिया की
सबसे प्राचीन सड़क पर चलने की उत्तेजना से भर जाता हूं
नर्मदा का ख़्याल इसलिए आया कि इंडियन ओशन का एक गाना याद आ गया। मां रेवा तेरा निर्मल पानी झर्झर बहतो जाय। यह गाना नर्मदा का जिस तरह से आह्वान करता है, लगता है नर्मदा का जल शरीर पर पड़ रहा है। मैं इसे सुनते हुए महसूस करता हूँ कि नर्मदा के तट पर खड़ा विनम्रता से उसके आगे सर झुका रहा हूं जिसे आज तक नहीं देखा। नर्मदा की याद ने प्रभाष जोशी की याद दिला दी। प्रभाष जोशी की याद आई तो उनका लिखा पढ़ने लगा, उन्हें पढ़ते हुए गंडक, सोन, गंगा को याद करने लगा और याद आ गए कृष्णमोहन झा और उनकी कविता।